16 वीं सदी में जब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भक्त की रक्षा के लिए रण में उतरे
Krishna Story in Hindi
मेड़ता के नरेश राव जयमल भगवान श्री कृष्ण के अनन्य उपासक थे। उन्हें भक्ति के संस्कार अपनी बहन मीराबाई से प्राप्त हुए थे। मीराबाई राव जयमल के चाचा की लड़की थी, दोनों भाई-बहन की आयु में अधिक अंतर नहीं था। उस समय राठौड़ों में मेड़ता रियासत सबसे बड़ी थी, राव जयमल मेड़ता के नरेश थे। वे प्रतिदिन दस घड़ी, यानी चार घंटे तक, एक आसन में बैठकर भगवान श्री कृष्ण की उपासना किया करते थे, यह उनका नित्य का नीयम था।
उनकी उपासना में कोई व्यवधान ना पड़े, इसलिए उन्होंने अपने राज्य में आदेश जारी किया हुआ था, कि यदि इन चार घंटों के दौरान कोई भी उनकी उपासना में बाधा पहुँचायेगा, तो उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। राव जयमल के एक राठौड़ वंशी रिश्तेदार थे, जिनका नाम राव मालदेव था, वे राव जयमल से शत्रुता रखते थे। राव मालदेव एक अत्यंत शक्तिशाली राजा थे, वे मेड़ता पर अधिकार करना चाहते थे, उन्हें अपनी जीत का पूरा विश्वास था।
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राव मालदेव यह जानते थे, कि राव जयमल चार घंटे तक कृष्ण भक्ति में लीन रहते हैं, इसलिए मेड़ता पर आसान विजय प्राप्त करने के लिए, उन्होंने मेड़ता पर ठीक उसी समय आक्रमण किया, जिस समय राव जयमल भगवान श्री कृष्ण की उपासना में लीन थे। राव मालदेव ने मेड़ता के किले को चारों तरफ से घेर लिया। मेड़ता के सेनापति को जब इस बात का पता चला, वह तुरंत राव जयमल के पास पहुंचे, लेकिन उस समय तक राव जयमल पूजा में बैठ चुके थे।
सेनापति को राजा के अंगरक्षकों ने दरवाजे पर ही रोक लिया, और कहा महाराज इस समय पूजा में बैठ चुके हैं, अतः इस समय आप उनसे नहीं मिल सकते। अब इस संकट की घड़ी में राजा जयमल को युद्ध की सूचना कौन देता, क्योंकि यदि कोई भी उनकी पूजा में विक्षेप पहुंचाता, तो उसे मृत्यु दंड दिया जाता। इसलिए सेनापति ने राव जयमल की माताजी से विनती की, और उनको राव जयमल के पास आक्रमण की सूचना देने के लिए भेजा गया, क्योंकि माता परम आदरणीय होती है, तथा किसी भी परिस्थिति में दंड के योग्य नहीं होती।
माँ ने जा कर राव जयमल से कहा, बेटा जयमल, हमारे किले को शत्रु ने चारों तरफ से घेर लिया है, सेनापति के लिए क्या आदेश है। तब जयमल ने हाथ के इशारे से कहा, सेनापति से कहो कि युद्ध के लिए जाए, मैं पीछे-पीछे आ रहा हूं। जयमल की माता ने सेनापति को राजा की आज्ञा सुनाई। सेनापति ने तुरंत सेना तैयार की और युद्ध के लिए निकले। उन्होंने राव मालदेव की सेना से भीषण युद्ध किया, इस युद्ध में मालदेव की सेना के पांव उखड़ गए, और उन्हें पीछे लौटना पड़ा। मेड़ता की सेना यह युद्ध जीत चुकी थी।
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सभी सैनिक राजा जयमल के जयकारे लगा रहे थे। कुछ देर बाद राजा जयमल अपनी पूजा खत्म करके बाहर आए, और उन्होंने जयकारों की आवाज सुनी। जयमल ने सेनापति से पूछा, क्या हमारी सेना युद्ध जीत गई। सेनापति बोले, महाराज, आप भी अच्छा मजाक करते हैं, आज आप ही के अद्भुत पराक्रम के कारण युद्ध में शत्रु सेना के छक्के छूट गए, और हमने बड़ी आसानी से युद्ध जीत लिया। जयमल बोले, मैंने युद्ध नहीं किया सेनापति जी, मैं तो भीतर पूजा में लीन था।
सेनापति बोले, महाराज ऐसा कैसे हो सकता है, आप ही ने कहा था, की सेना लेकर चलो मैं पीछे-पीछे आ रहा हूं, फिर आप कुछ देर में ही आ गए थे। आप ही ने हम सभी का इस युद्ध में नेतृत्व किया और आपके असाधारण पराक्रम और रणनीति के कारण हमने इस युद्ध में विजय प्राप्त की। यह सब सुनकर जयमल आश्चर्यचकित रह गए, जयमल बोले, मैंने तो युद्ध किया ही नहीं, मैं तो पूजा में लीन था, यह कहकर जयमल महल के भीतर मंदिर की तरफ दौड़े।
उन्होंने देखा, कि भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति से पसीना टपक रहा था। भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति के दोनों कानों में कुंडल पहनाए गए थे, लेकिन उस समय मूर्ति का एक कुंडल गायब था। जयमल ने तुरंत उस खोए हुए कुंडल की खोज करवाई। बहुत खोज करने के बाद, रण क्षेत्र के बीच में जयमल को वह कुंडल मिल गया, यह देख मेड़ता के लोग आश्चर्यचकित रह गए। क्योंकि इस युद्ध में राजा जयमल के स्थान पर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने राजा जयमल का रूप लेकर युद्ध किया, और विजय प्राप्त की थी।
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भगवान श्री कृष्ण, पूजा में बैठे अपने भक्त की रक्षा के लिए स्वयं रणक्षेत्र में उतरे, और शत्रुओ से युद्ध किया। जिस स्थान पर भगवान श्री कृष्ण का कुंडल पाया गया था, उस स्थान का नाम कुंडल रखा गया। आज उस स्थान पर एक तालाब है, जिसका नाम कुंडल सरोवर है। उस युद्ध के बाद यह दोहा प्रचलित हो गया, "जयमल जीतरौ शूरो हो, उतरौ भगत भगवंत, जयमल बणके जुझ गयो थौ, राधा-रूकमण रो कंथ". अर्थात जयमल जितना शूरवीर था, उतना ही बड़ा भगत था, और राधा रुकमणी का पति उस दिन जयमल बनकर युद्ध में जूझ गया था।
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