धन्ना जाट से धन्ना सेठ बनने की कहानी Krishna Story in Hindi
Krishna Story in Hindi
धन्ना जाट का जन्म, 20 अप्रैल 1415 को राजस्थान के टोंक जिले के धुआंकला नाम के गाँव में, एक सामान्य जाट परिवार में हुआ था। इनके पिता गाँव के किसान थे, जिनका नाम रामेश्वर जाट था, तथा इनकी माता का नाम गंगाबाई गढ़वाल था। धन्ना जाट एक उच्च कोटि के कृष्ण भक्त और कवि हुए। इन्हें धन्ना भगत और धन्ना सेठ के नाम से भी जाना जाता है।
धन्ना जी का जन्म एक सामान्य कृषक परिवार में हुआ था, इनके पिता मुख्य रूप से कृषि और गऊ पालन किया करते थे। एक दिन धन्ना जी के परिवार के कुलगुरु, जिनका नाम पंडित त्रिलोचन था, तीर्थयात्रा करके लौटे, और कुछ दिनों के लिए धन्नाजी के घर पर ठहरे। पंडित त्रिलोचन शालिग्राम भगवान की सेवा किया करते थे, वे बड़े भाव से शालिग्राम शिला की सेवा करते, पुष्प अर्पित करते, और उन्हें भोग लगाने के बाद ही भोजन ग्रहण किया करते थे। बालक धन्ना, पंडित जी को यह सब करते हुए देखता था, उसे भगवान की यह सेवा बहुत पसंद आयी।
कुछ दिन बाद जब पंडितजी जाने लगे, तब बालक धन्ना पंडित जी के शालिग्राम भगवान के लिए जिद करने लगा, मुझे ठाकुर जी चाहिए मुझे ठाकुर जी चाहिये। परन्तु पंडितजी अपने ठाकुरजी, छोटे से बालक को कैसे दे सकते थे। धन्नाजी को उनके माता पिता ने बहुत समझाया, परन्तु धन्नाजी नहीं माने। अंत में लोगों ने पंडितजी से कहा, अरे यह तो बालक है, इसे शालिग्राम जैसा कुछ और देकर बहका दो।
अगले दिन पंडितजी नदी में स्नान करने गए, वहाँ से वे एक गोल-मटोल थोड़ा बड़ा सा काले रंग का पत्थर ले आये। तब वे धन्ना जी के पास आकर बोले, मैं तुम्हें अपने ठाकुरजी दे दूंगा, लेकिन मेरे पास दो ठाकुरजी है, बड़े ठाकुरजी और छोटे ठाकुर जी, तुम्हे कौन से ठाकुर जी चाहिए। धन्ना जी ने झट से जवाब दिया, मुझे तो बड़े ठाकुरजी चाहिए। पंडित जी भी यही चाहते थे, पंडितजी ने धन्ना जी को वह बड़ा काला पत्थर बड़े ठाकुरजी बताकर दे दिया।
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ठाकुरजी को पाकर धन्नाजी बहुत प्रसन्न हो गए, वे बड़े भाव से उनकी सेवा करने लगे। धन्ना जी गायें चराने खेतों में जाते, तो ठाकुर जी को अपने साथ ले जाते। धन्ना जी की माँ ने उनको बाजरे की रोटी, साग, अचार और गुड़ खाने को दिया। अब धन्ना जी ने भी निश्चय किया, की वे भी पंडित जी की तरह ठाकुर जी को भोग लगाने के बाद ही भोजन ग्रहण करेंगें। धन्ना जी ने खेत में बहुत प्रेम से ठाकुर जी को पुकारकर भोग लगाया, परन्तु ठाकुर जी भोग लगाने नहीं आये।
धन्नाजी ने निश्चय किया, जब तक ठाकुरजी स्वयं प्रकट होकर भोग नहीं लगाते, वे भी भोजन ग्रहण नहीं करेंगें। जब ठाकुरजी ने धन्नाजी की रोटी का भोग नहीं लगाया, तो धन्ना जी ने शाम को वह रोटी गाय को खिला दी। तीन दिनों तक ऐसा ही चलता रहा, न ठाकुरजी भोग लगाते और ना धन्नाजी भोजन ग्रहण करते।
चौथे दिन धन्नाजी की माताजी फिर से रोटी लेकर आयी। अब धन्ना जी खेतों में जोर-जोर से रोने लगे, और ठाकुर जी से गुहार लगाने लगे, वे बोले, आप तो बड़े ठाकुरजी है, आपको तो लोग रोज ही छप्पन भोग जीमाते होंगे, परन्तु मैं बालक तीन दिन से भूखा और परेशान हूँ, आपको मुझ पर दया नहीं आती क्या, मुझ पर दया करके ही थोड़ा भोग लगा लो, जिससे मैं भी कुछ खा सकूँ। पंडितजी ने कहा है की आपको खिलाये बिना कुछ नहीं खाना, इसलिए पहले आप खा लो, उसके बाद ही मैं खा सकूंगा।
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धन्नाजी की भोलेपन से की गयी प्रार्थना सुनकर, भगवान श्री कृष्ण साक्षात् प्रकट हो गए। अपने ठाकुरजी को देखकर धन्ना जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ठाकुर जी को माँ की दी हुई बाजरे की रोटी, साग और गुड़ खाने को दिया। ठाकुरजी बड़े चाव से रोटी खाने लगे। चार रोटियों में से दो रोटी ठाकुर जी ने खा ली, जब ठाकुरजी तीसरी रोटी खाने लगे, तब धन्नाजी ने उनका हाथ पकड़ लिया, और कहा, सारी रोटियाँ आप ही खा जायेगें, मुझे भी तो भूख लगी है, मैंने तो चार दिनों से कुछ भी नहीं खाया। दो रोटी आपने खा ली, अब दो रोटी मेरे लिए छोड़ दो। यह सुनकर ठाकुर जी मुस्कुराने लगे, और बची हुई दो रोटियाँ धन्ना जी ने खाई।
अब तो यह उनका रोज का नियम हो गया। धन्नाजी जब गायें चराने जाते, तो खेतों में जाकर ठाकुरजी के साथ ही भोजन करते। एक दिन ठाकुरजी ने धन्नाजी से कहा, तुम रोज मुझे रोटी खिलाते हो, मैं मुफ्त में रोटी नहीं खाना चाहता, इसलिए मैं रोटी के बदले तुम्हारा कोई काम कर दिया करूँगा। धन्ना जी ने कहा, मैं तो बालक हूँ, केवल गायें ही चराता हूँ, मैं आपको क्या काम बता सकता हूँ। ठाकुर जी बोले, मैं तुम्हारी गायें ही चरा दिया करूँगा। उस दिन के बाद से ठाकुर जी धन्ना जी की गायें चराने लगे।
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एक दिन धन्नाजी ने ठाकुरजी से पूछा, आप मुझे अपने ह्रदय से क्यों नहीं लगाते हैं। ठाकुर जी ने कहा, मैं तुम्हें प्रत्यक्ष तो हो गया हूँ, लेकिन मैं पूरी तरह से तब मिलता हूँ, जब कोई सदगुरु की शरण ले लेता है। अभी तक तुमने किसी गुरु की शरणागति ग्रहण नहीं की है, इसलिए मैं तुम्हे अपने हृदय से नहीं लगा सकता। धन्नाजी बोले, मैं तो जानता ही नहीं की गुरु किसे कहते है, फिर मैं किसे अपना गुरु बनाऊं।
ठाकुर जी बोले, काशी में जगद्गुरु श्री रामानंदाचार्य मेरे ही स्वरूप में विराजमान है, तुम जाकर उनकी शरणागति ग्रहण करो। ठाकुर जी के कहे अनुसार धन्ना जी ने काशी जाकर श्री रामानंदाचार्य जी की शरणागति ग्रहण कर ली। उस समय धन्ना जी की आयु पंद्रह-सोलह वर्ष के आसपास थी। श्री रामानंदाचार्य जी ने धन्ना जी को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया, और उन्हें आदेश दिया, की अब तुम अपने घर चले जाओ।
धन्नाजी बोले, गुरूजी, अब मैं घर नहीं जाना चाहता, आप मुझे घर जाने का आदेश क्यों दे रहें है। गुरूजी बोले अगर तुम यहाँ रहकर भजन करोगे, तो केवल तुम्हारा ही कल्याण होगा, लेकिन अगर तुम अपने घर जाकर खेती किसानी करते हुए, अपने माता-पिता की सेवा करते हुए भजन करोगे, तो तुम्हारे साथ कई जीवों का उद्धार हो जायेगा। गुरूजी के आदेश पर धन्नाजी घर लौट आये। इसके बाद जैसे ही धन्नाजी घर पहुंचे, ठाकुर जी ने उन्हें अपने ह्रदय से लगा लिया।
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इसके बाद धन्नाजी खूब मन लगाकर संत सेवा करने लगे, जब भी उनके गाँव में कोई साधु संत आते, तो धन्नाजी उन्हें अपने घर ले आते, और बड़े प्रेम से उनकी सेवा करते, और उन्हें भोजन खिलाते। संतो की सेवा करने के कारण, अब उनके घर दूर-दूर से साधु-संत पधारने लगे। धन्नाजी उन सभी का बड़े प्रेम से सत्कार करते, और उन सभी को भोजन कराते।
एक दिन धन्नाजी के पिताजी ने उनसे कहा, देखो भाई, हम लोग गृहस्त लोग है, यदि महीने में एकआध बार कोई साधु आ जाये तो हम उनकी सेवा भी कर दें, और उन्हें भोजन भी करा दें। लेकिन तुम्हारी इन साधुओं से ऐसी दोस्ती हो गयी है, की हर दूसरे दिन कोई न कोई साधु चला आता है, और अपने साथ एक दो को और ले आता है। यह ठीक नहीं है, हम अपनी खेती-बाड़ी का काम करें, या इन साधुओं की सेवा करें।
तुम तो अभी बालक हो कुछ कमाते नहीं, तुम्हारा पालन पोषण भी हम ही करतें है, और ऊपर से तुम इन साधुओं को बुला लाते हो। इस प्रकार इन निठल्ले साधुओं की सेवा करना ठीक नहीं है। इसलिए एक बात कान खोलकर सुन लो। आज के बाद यदि तुम किसी साधु को घर लेकर आये, तो मैं उन्हें घर में नहीं घुसने दूंगा। यदि तुम्हें साधु सेवा करनी है, तो पहले कुछ कमाई करो, फिर अपनी कमाई से साधु सेवा करना।
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पिताजी की बात सुनकर धन्नाजी उदास हो गए, और चुपचाप खड़े हो गए, तब पिताजी ने धन्नाजी को डांटते हुए कहा, आज के बाद किसी साधु को घर में लेकर मत आना, और जाओ खेतों में गेहूं बो कर आओ। खेत तैयार है, बोरियों में बीज का गेहूं रखा है, इसे बैलगाड़ी में रखकर ले जाओ, और खेत में बो दो। धन्नाजी ने बैलगाड़ी में गेहूं की बोरियाँ रख ली, और खेत में बोने चल दिए।
धन्नाजी थोड़ी दूर ही चले थे, उन्हें मार्ग में पांच-छः साधु-संतो की टोली आती दिखाई दी। धन्नाजी ने बैलगाड़ी से उतरकर उन्हें शाष्टांग प्रणाम किया। संतो ने धन्नाजी को आशीर्वाद दिया, और पूछा, बेटा, इस गाँव में धन्नाजी का घर कौन सा है, सुना है वे जगद्गुरु श्री रामानंदाचार्य के शिष्य है, और बहुत छोटी उम्र में ही उन्होंने भगवान का दर्शन प्राप्त कर लिया है। हम भी उनका दर्शन करना चाहते है। यह सुन कर धन्नाजी संकोच में पड गए, और वे हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रता से बोले, महाराज मुझे ही लोग धन्ना भगत कहते है।
संत बोले, भगवान ने बड़ी कृपा की, हम जिनसे मिलने आये थे, वे यहीं मिल गए। निश्चित ही आप ऐसे ही भक्त है जैसा आपके विषय में सुना था, कितनी विनम्रता है आपमें। चलिये आपके घर चलतें है, वहीं बैठ कर आपसे चर्चा करेंगे। धन्नाजी ने सोचा, अभी पिताजी ने साधुओं को घर लाने के लिए मना किया है, यदि मैं खेतों में बीज बोने के बजाय, इन साधु-संतो को घर ले गया, तो पिताजी आसमान सिर पर उठा लेंगे, और इन साधुओं को भी भगा देंगे।
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तब धन्नाजी कुछ विचार करके बोले, महाराज अभी घर पर कोई नहीं है, मैं भी खेतों की तरफ जा रहा हूँ, आप भी मेरे साथ वहीं चलिए। संत बोले, ठीक है, हमें तो आपसे मिलना था, अब आप जहाँ ले चलें हम वहीं चलेगें। फिर धन्नाजी उन सभी को अपने खेत ले गए। खेत में एक पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर साधुओं को बैठाकर बोले, महाराज, आप यहीं पर कुछ देर विश्राम कीजिये, तब तक मैं आपके भोजन की व्यवस्था करता हूँ। यह कहकर धन्नाजी वहाँ से बैलगाड़ी लेकर चले गए।
बैलगाड़ी लेकर धन्नाजी सीधे बनिये की दुकान पर पहुंचे, वहां पर उन्होंने, बैलगाड़ी में बीज वाला गेहूं, जो खेत में बोने के लिए रखा था, उसे बनिये को बेच दिया, और उससे दाल बाटी और चूरमा बनाने का सारा सामान खरीद लिया। सामान लेकर धन्नाजी खेत पहुंचे। वहाँ पर उन्होंने संतो के साथ मिलकर बहुत बढ़िया दाल बाटी और चूरमे का प्रसाद बनाया। भगवान को प्रसाद का भोग लगाने के बाद बड़े प्रेम से उन्होंने सभी संतो को भोजन करवाया, इसी बिच भगवत चर्चा भी होती रही। संतो को भोजन करवाने के बाद बड़े प्रेम से उन्हें विदा भी कर दिया।
संतो के जाने के बाद धन्नाजी सोचने लगे, की बीज वाले गेहूं को तो बेचकर संतों को भोजन करा दिया, अब खेत में क्या बोया जाये। अगर पिताजी से फिर बीज माँगने गया, तो पिताजी बहुत नाराज होंगे। यह सोचकर धन्नाजी ने बोरियों में रेत भर ली, और आसपास के लोगों को दिखाने के लिए, उस रेत को ही खेतों में बोने लगे। धन्नाजी ने राम-राम का नाम लेते हुए, शाम तक बोरियों की सारी रेत खेत में छिड़क दी।
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आस पास के खेत वाले देख रहे थे, की धन्नाजी खेतों में गेहूं बो रहे है, परन्तु वे तो खेतों में रेत बो रहे थे। खेत बोने के बाद धन्नाजी बड़े प्रसन्न मन से घर की ओर चल दिए, वे सोचने लगे खेतों में तो कुछ उगना नहीं है, तो देखभाल भी नहीं करनी पड़ेगी। घर पर पिताजी ने पूछा, खेत बो आये, धन्नाजी बोले, जी पिताजी बो आया।
कुछ दिन बाद धन्नाजी के पिताजी और गाँव के कुछ बड़े बूढ़े-लोग धन्नाजी के पास आये, और बोले, तुमने कैसा खेत बोया है, ऐसी फसल तो हमने अपने जीवन में आज तक नहीं देखी। ऐसा लगता है, जैसे गेहूं का एक एक दाना नाप-नाप कर एक समान दुरी पर बोया गया है, और सारे ही दाने उग आएं हैं। इतनी सुंदर फसल तो हमने आजतक नहीं देखी, ये सब तुमने कैसे किया। धन्नाजी सोचने लगे, ये सब उनको ताने मार रहें है, खेत में कुछ उगा ही नहीं होगा, इसलिए ऐसी बातें बोल रहें है।
तब धन्नाजी ने स्वयं खेत पर जाकर देखा, वहाँ जाकर वे आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने देखा, जिस खेत में उन्होंने रेत बोई थी, वहाँ पर फसल उग आयी थी, और ऐसी सुन्दर फसल उन्होंने भी कभी नहीं देखी थी। फसल को देखकर धन्नाजी को भगवान की कृपा का अहसास हुआ, और उनकी आँखों से आँसू निकल आये। धन्नाजी जोर-जोर से रोने लगे। जब धन्नाजी के पिताजी और अन्य गाँव वालों ने रोने का कारण पूछा, तब धन्नाजी ने रोते हुए सारी घटना कह सुनाई।
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धन्नाजी बोले, पिताजी, जिस दिन आपने संतो को घर लाने के लिए मना किया था, और खेत में बोने के लिए गेहूं दिया था, उसी दिन खेतों की तरफ जाते समय मार्ग में मुझे कुछ संत मिल गए। मैंने उन संतो को अपने खेत पर ठहराया, और बीज वाला गेहूं बनिये को बेचकर संतों को भोजन करवा दिया। इसके बाद मैंने खेतों में रेत बो दी, रेत बोने के बाद यह फसल कैसे उग आयी मुझे नहीं मालूम।
धन्नाजी की बात सुनकर उनके पिताजी के भी आंसू निकल आये। वे बोले, मेरा धन्य भाग, जो मेरे घर में ऐसे पुत्र ने जन्म लिया। आज के बाद हम तुम्हें रोकेंगे नहीं, खूब साधु बुलाओ खूब संत सेवा करो, हम तुम्हें अब कभी मना नहीं करेंगें। आज से मैं भी भगवान की भक्ति किया करूँगा, और तुम्हारे साथ संतो की सेवा किया करूँगा। इसके बाद धन्नाजी और उनके परिवार वाले खूब संत सेवा करने लगे।
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कुछ समय बाद धन्नाजी की उगाई हुई फसल को काटने का समय आ गया। उस फसल से उतने ही आकार की खेती से 50 गुना ज्यादा गेहूँ निकला, यह गेहूँ इतना ज्यादा था, की उसे रखने तक की जगह नहीं बची थी। गाँव के सभी लोग धन्नाजी की फसल देखकर आश्चर्य करने लगे। अब धन्नाजी और उनका परिवार अपनी क्षमता के अनुसार खूब संत सेवा और भगवान की भक्ति करने लगे। उनके घर में हमेशा साधु संतों का ताँता लगा रहता, साधु-संतों की बड़ी-बड़ी जमातें आती, धन्नाजी सभी का बड़े प्रेम से सत्कार करते।
अब धन्नाजी जब भी खेतों में फसल बोते, हर बार ऐसी ही फसल होने लगी। अब धन्नाजी अपने गाँव के बड़े किसान बन गए। गाँव के सभी लोग धन्नाजी को चमत्कारी संत मानने लगे, और उनके खेतों की मिटटी को भी चमत्कारी मानने लगे। जिन लोगों के खेतों में पर्याप्त फसल नहीं होती थी, वे लोग धन्नाजी के खेतों की मिटटी ले जाकर अपने खेतों में छिड़क लेते, इससे उनकी फसल भी अच्छी होने लगी। चारों तरफ धन्नाजी की जय-जय कार होने लगी।
एक बार भगवान ने धन्नाजी की परीक्षा लेनी चाही, धन्नाजी के गाँव में अकाल पड़ गया। धन्नाजी बड़े किसान थे, उनके पास बहुत खेती थी, और अन्न के भंडार भरे थे। अकाल के कारण उनके गाँव, और आसपास के क्षेत्रों के ब्राह्मण, संत, गरीब और जरूरतमंद लोग, धन्नाजी के पास मदद की उम्मीद से आने लगे। धन्नाजी भी उन्हें दोनों हाथों से भंडार लुटाने लगे, कभी कोई जरुरतमंद उनके घर से खाली हाथ नहीं लौटा। धीरे-धीरे धन्नाजी का अन्न भंडार समाप्त होने लगा। परन्तु धन्नाजी ने निश्चय किया, जब तक उनका सामर्थ्य है, वे किसी भी जरूरतमंद को निराश नहीं करेंगें, अपना सबकुछ बेचकर भी वे लोगों की मदद करेंगें।
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धन्नाजी की निस्वार्थ सेवा से प्रसन्न होकर, एक दिन स्वयं भगवान श्री कृष्ण संत वेश में उनसे मिलने आये। संत रूपी भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें तुंबा (तुंबा जिससे कमंडल बनाया जाता है) के बीज दिए, और कहा धन्नाजी इन बीजों को अपने खेतो में बो दो, और जब इनकी फसल पक जाये, तो उससे जो भी प्राप्त हो, उसे लोगों की सेवा में खर्च करना। धन्नाजी ने ऐसा ही किया, संत की आज्ञा मानकर उन्होंने तुंबा के बीज खेतों में बो दिए।
गाँव के लोग कहने लगे, लगता है धन्नाजी पागल हो गए है, ऐसे भीषण अकाल में फसल बो रहें है, और वो भी तुंबा की। इस कडुए तुंबा को तो पशु भी नहीं खाते, यह तो केवल कमंडल बनाने के काम आता है। यदि ऐसी फसल उग भी गयी, तो उसका क्या फायदा। परन्तु धन्नाजी ने संत के कहे अनुसार अपने खेतो में तुम्बा के बीज बो दिए। कुछ दिन बाद तुंबा की फसल उग आयी। सभी लोग आश्चर्य करने लगे, की ऐसे भीषण अकाल में बिना पानी के कोई फसल कैसे उग सकती है। कुछ ही दिनों में धन्नाजी का खेत हरा-भरा हो गया।
इसी बीच धन्नाजी जरुरतमंदो की सेवा करते रहे, धन्नाजी ने अपना सारा अन्न भंडार सेवा में लुटा दिया। उनके घर में जो फसलों के बीज रखे थे, वे भी उन्होंने संतों के भोजन के लिए दान कर दिए। अब उनके पास अपने परिवार के गुजारे लायक भी अन्न नहीं बचा था। गाँव के लोग कहने लगे, बड़ा मुर्ख है धन्ना, जो सारा अन्न लुटा दिया, अपने परिवार के लिए भी कुछ नहीं रखा, और इसने फसल भी बोई तो तुंबा की, जिसे खा भी नहीं सकते। धन्नाजी को लोगों की बातों से कोई फर्क नहीं पड़ा, वे तो भगवान का नाम लेते रहते थे और लोगो की मदद करते रहते थे।
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एक दिन ऐसा आया, जब धन्नाजी के खेतों में लगी फसल पक गयी, उनके खेतों में तुम्बा के बड़े-बड़े फल दिखाई दे रहे थे। धन्नाजी ने सोचा, अब दान करने के लिए तो कुछ है नहीं, अब इन तुंबा से कमंडल बनाकर संतो को दिया करेंगे। धन्नाजी खेतों में लगे सभी तुंबा के फल तोड़कर घर ले आये। घर आकर जैसे ही उन्होंने एक तुंबा को कमंडल बनाने के लिए काटा। उन्होंने देखा यह तुंबा हीरे-मोती, जवाहरात और कीमती रत्नो से भरा हुआ था।
तुंबा को कीमती रत्नो से भरा देखकर धन्नाजी आश्चर्यचकित रह गए। उनके पास तो तुंबा की पूरी फसल थी। उन्होंने देखा सभी तुम्बा के फलों में ऐसे ही कीमती रत्न भरे हुए थे। अब उनके पास इतने कीमती रत्न और जवाहरात हो गए थे, जितने किसी राजा के पास भी शायद ही हो। इस चमत्कार को देखने के बाद धन्ना जी को उन संत की याद आयी, जिन्होंने उन्हें तुंबा के बीज दिए थे। उन संत ने कहा था, की इस फसल से जो भी प्राप्त हो उससे लोगो की सेवा करना।
अब धन्नाजी उस धन से लोगो की सेवा करने लगे, वे फिर से दोनों हाथो से लोगों की मदद करने लगे। उस समय वह अकाल कई वर्षो तक चला। उस समय धन्ना जी ने अपने घर में और आसपास के सभी गांवों में, लोगो को भोजन करवाने के लिए भंडारे शुरू करवा दिये। आसपास के सैंकड़ों गाँवो के लाखों लोग, वर्षों तक, धन्नाजी के भंडारे में तीनों समय भरपेट भोजन किया करते थे।
धन्नाजी ने अपने जीवनकाल में उस धन से कई मंदिर, बावड़ियां, तालाब और धर्मशालाएं बनवाई, और हर तरह से साधु-संतो और लोगों की मदद की। इस तरह लोग धन्नाजी को धन्ना सेठ कहकर बुलाने लगे। धन्नाजी जैसा धनी आज तक कोई नहीं हुआ, वे धन और मन दोनों के धनी थे। आज भी उनके ही नाम से अत्यंत धनी लोगों को धन्ना सेठ के नाम से बुलाया जाता है।
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