कैसे आल्हा ऊदल ने अपने पिता का प्रतिशोध लिया
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यह बात है 1165 की, उस समय महोबा में, चंदेल राजा परमर्दिदेव का राज्य था। वे राजा परमार के नाम से विख्यात थे। राजा परमार मध्य भारत के सबसे शक्तिशाली और महान हिंदू चंदेल सम्राटों में से एक थे। उन्होंने 1167 ईस्वी में, उरई के परिहार राजा को पराजित कर, वहां की राजकुमारी मलहना से विवाह किया, और उनकी दो बड़ी बहन देवल और तिलका का विवाह, अपने सेनापति और दूर के भाई दसराज और वत्सराज से करवा दिया। इन सभी बहनों का एक भाई था, जिसका नाम मामा माहिल था। माहिल एक बहुत ही कुटिल व्यक्ति था।
राजा परमार के तीन पुत्र हुए, तथा सेनापति दसराज और वत्सराज को दो-दो पुत्रों की प्राप्ति हुई, जिनका नाम आल्हा और ऊदल तथा मलखान और सुलखान रखा गया। राजा परमार उस समय मध्य भारत के एक शक्तिशाली सम्राट थे। उन्होंने अपने शक्तिशाली सेनापति दसराज और वत्सराज के नेतृत्व में, अपने आसपास के राज्यों को जीत लिया था। इनके राज्य की सीमा मांडू को छूने लगी थी, उस समय मांडू के राजा जंभे थे, जिनके पुत्र का नाम राय करिंगा था।
Alha Udal Ki Kahani |
महोबा राज्य की बढ़ती हुई शक्ति को देख, राय करिंगा ने एक विशाल सेना लेकर महोबा राज्य पर आक्रमण कर दिया। उधर महोबा राज्य से भी सेनापति दक्षराज और वत्सराज अपनी सेना लेकर निकल पड़े। रणभूमि में दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ, इस युद्ध में दक्षराज और वत्सराज ने ऐसा पराक्रम दिखाया, की मांडू की सेना पीछे हटने लगी। यह युद्ध कई दिनों तक चला, लेकिन मांडू की सेना दक्षराज और वत्सराज के पराक्रम का सामना नहीं कर पा रही थी।
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अपनी सेना को हारता देख मांडू के राजकुमार राय करिंगा ने एक चाल चली, और उसने रात्रि में महोबा की सेना पर आक्रमण कर दिया। उस समय महोबा की सेना अपने शिविर में सो रही थी, इसी आक्रमण के दौरान महोबा की सेना के दोनों सेनापति दक्षराज और वत्सराज गिरफ्तार कर लिए गए। उन दोनों को गिरफ्तार करके मांडू ले जाया गया। मांडू में उन दोनों सेनापतियों को भयानक सजा दी गई, और उन्हें कोल्हू में पिसवा कर उनके सर धड़ से अलग कर दिए गए। इसके बाद उन दोनों के सिरों को बरगद के पेड़ की सबसे ऊंची डाल पर टांग दिया गया।
महोबा की सेना के दोनों सेनापतियों के सर बरगद के पेड़ पर टांग कर, मांडू राज्य ने यह संदेश दिया था, कि मांडू राज्य से जो भी शत्रुता करेगा उसका यही अंजाम होगा। सेनापति दक्षराज के पुत्रों के नाम आल्हा और उदल थे। आल्हा पहले ही हो चुके थे, जबकि उदल पिता की वीरगति के समय अपनी माता के गर्भ में थे। जिस दिन उदल का जन्म हुआ, उस दिन एक भूकंप के कारण महोबा की धरती ढाई हाथ धंस गई थी।उदल की माता देवल ने सोचा, इसके गर्भ में आते ही इसके पिता की मृत्यु हो गई, और इसके जन्म पर भयानक भूकंप आ गया।
देवल ने इसे एक अपशकुन माना, इसलिए वे उदल को त्यागना चाहती थी। अतः रानी मल्हना ने उदल की परवरिश की, रानी मलहमा को उदल की धर्म माता भी माना जाता है। सेनापति वत्सराज की पत्नी तिलका देवी से मलखान और सुलखान का जन्म हुआ, यह दोनों भाई भी आल्हा और उदल की तरह पराक्रमी योद्धा हुए। मलखान युद्ध के समय कई घोड़ों से चलने वाले विशाल रथ में बैठकर युद्ध के लिए उतरता था, तथा उसका भाई सुलखान अपने भाई के रथ का सारथी बनता था। दोनों भाई मिलकर युद्ध में ऐसा पराक्रम दिखाते थे, जिसे देखकर कोई भी सेना भयभीत हो जाती थी।
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रानी मल्हना के भी तीन पुत्र हुए, जिनका नाम ब्रह्मजीत, इंद्रजीत और रणजीत था। इनके अलावा महोबा के राजपुरोहित का एक पुत्र था, जिसका नाम देवा था। वह आल्हा-उदल और मलखान-सुलखान का परम मित्र था। इस प्रकार यह सभी राजकुमार, आल्हा-उदल, मलखान-सुलखान, ब्रह्मजीत-इंद्रजीत-रणजीत और देवा, ये सभी धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे। आगे चलकर ये सभी राजकुमार पराक्रमी योद्धा हुए।
इन सभी राजकुमारों को बचपन में यह नहीं बताया गया था, की इनके पिता और चाचा कि किस प्रकार मांडू राज्य में वीरगति हुई थी। कोई भी इन्हें यह बात नहीं बताता था, क्योंकि इन सभी भाइयों में इतना अधिक उत्साह, क्रोध और बल था, की इन्हें जिस भी दिन मालूम होता, की इनके पिता और चाचा के साथ क्या हुआ है, तो ये सभी उसी दिन मांडू राज्य पर आक्रमण कर देते।
एक दिन उदल, व्यायाम शाला में जोर आजमा रहे थे, वहाँ उन्होंने मामा माहिल के पुत्र को बुरी तरह पछाड़ दिया। वह रोते हुए अपने पिता माहिल के पास पहुंचा, और उन्हें सारी बात बताई। यह सुनकर मामा माहिल को क्रोध आ गया, वह पहले से ही अपने सभी भांजों से चिढ़ता था। उसने जाकर उदल को खरी-खोटी सुना दी, उसने ऊदल से कहा, यदि तुझमें इतना ही बल है, तो तू मांडू जाकर अपने पिता और चाचा की, बरगद के पेड़ पर लटकी हुई खोपड़ीयां क्यों नहीं ले आता, जो वहां सालों से अपने अंतिम संस्कार के लिए तरस रही है।
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यह सुनकर आल्हा-उदल सन्न रह गए, उनके तो समझ ही नहीं आ रहा था, कि यह मामा किस बारे में बात कर रहा है। तब मामा माहिल ने कहा, बाप को वेरी जो ना मारे, ताको मांस गिद्ध ना खावे। अर्थात जो पुत्र अपने पिता के शत्रु को ना मारे, अंत समय में उसका मांस गिद्ध भी नहीं खाते। यह सुनकर आल्हा ऊदल के तन-बदन में आग लग गई, दोनों भाई बड़े क्रोध में अपनी मां देवल के पास पहुंचे, और उनसे पूछा, कि मामा ने हमें ऐसा कैसे कह दिया, हमें तो बताया गया था, कि हमारे पिता युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे, परंतु मामा तो कुछ और ही बता रहे हैं।
पहले तो माता देवल ने बताने में संकोच किया, लेकिन जब आल्हा उदल ने जिद पकड़ ली, तो आखिरकार उन्हें बताना पड़ा, कि तुम्हारे पिता और चाचा की मांडू के राजकुमार राय करिंगा ने धोखे से हत्या कर दी, और उनके शीश मांडू के किले में स्थित बरगद के पेड़ पर टांग दिए, जो आज भी वहीं पर टंगे हैं। यह सुनकर आल्हा-उदल का खून खौल गया, वे दोनों उसी समय मांडू पर आक्रमण करना चाहते थे, इसलिए वे युद्ध की आज्ञा लेने राजा परमार की राज सभा पहुंच गए।
राजा परमार जानते थे, मांडू के दुर्ग को जीतना आसान नहीं है, उन्होंने दोनों भाइयों से कहा, अभी तुम सब राजकुमारों की आयु कम है, इसलिए सही समय का इंतजार करो, समय आने पर हम अवश्य ही मांडू पर आक्रमण करेंगे। आल्हा उदल उसी समय मांडू पर आक्रमण करना चाहते थे, महाराज के मुख से ऐसी बात सुनकर उनका क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया। ऊदल ने उस भरी सभा में गरज कर कहा, महाराज आप उम्र की क्या बात करते हैं, बारह साल कुत्ता जीता है, तेरह साल सियार जीता है, एक शेर सोलह साल जीता है, और अगर कोई क्षत्रिय बिना युद्ध लड़े अठारह साल से अधिक जिए, तो उसके जीवन को धिक्कार है।
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यह सुनकर राज्यसभा में उपस्थित सभी सेनापतियों और शूरवीर योद्धाओं का खून ख़ौल गया। उदल की हुंकार से सभी के हृदय में वीर रस का संचार हो गया था। सभी योद्धा सालों पहले हुए धोखे का बदला लेना चाहते थे, यह देखकर राजा परमार ने मांडू पर चढ़ाई की आज्ञा दे दी। सेना संगठित की गई, आल्हा-उदल, मलखान-सुलखान, राजा का पुत्र ब्रह्मजीत और राजपुरोहित का पुत्र देवा इस युद्ध में जाने के लिए तैयार हो गए। सभी शूरवीर भाई महोबा की सेना को लेकर मांडू की तरफ चल दिए।
जब वे सभी मांडू की सीमा के नजदीक एक वन में पहुंचे, तो देवा जो उन सब में से सबसे अधिक बुद्धिमान थे, वे बोले, मांडू के दुर्ग को जीतना इतना आसान नहीं है, मांडू के दुर्ग पर आक्रमण करने से पहले हमें इस दुर्ग की कमजोरी का पता लगाना चाहिए। सब ने पूछा इस दुर्ग की कमजोरियां कैसे पता करें, तब देवा ने सुझाव दिया, हमें युद्ध से पहले इस दुर्ग का निरीक्षण करना चाहिए। तब एक योजना बनाई गई, जिसके अनुसार, ब्रह्मजीत ने सेना के साथ वही जंगल में पड़ाव डाला, और आल्हा-उदल, मलखान-सुलखान और देवा इन पांचों ने साधु का भेष बनाया, और मांडू के दुर्ग की ओर बढ़ चले।
मांडू के दुर्ग से पहले एक नगर पढ़ता था, उस नगर का एक बहुत विशाल और सुदृढ़ दरवाजा था, जिससे गुजर कर ही नगर में प्रवेश किया जा सकता था। इस दरवाजे पर मांडू की सेना की एक टुकड़ी हमेशा तैनात रहती थी, जब वे पांचों व्यक्ति नगर में प्रवेश करने लगे, तो सैनिकों ने उनका परिचय पूछा। उनमें से देवा बोले, हम सभी हिमालय पर निवास करने वाले योगी हैं, हम हमेशा भ्रमण करते रहते हैं, हिमालय से दक्षिण भारत की यात्रा पर जा रहे हैं। मार्ग में आपका सुंदर नगर पड़ता है, तो इसे देखने की हमारी बड़ी इच्छा है, इसलिए हम आपके नगर में आए हैं।
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मांडू में साधु संतों का बहुत आदर होता था, इसलिए सैनिकों ने उन सभी को नगर में प्रवेश करने दिया। जैसे ही उन सभी ने नगर के भीतर प्रवेश किया, कुछ ही दूरी पर वह विशाल बरगद का वृक्ष था, उस वृक्ष पर आज भी दक्षराज और बच्छराज की खोपड़ी लटकी हुई थी। यह देखकर उदल का खून खौल गया, वह भूल गए कि वह साधु का भेष बनाकर आए हैं, वह उसी समय सैनिकों से युद्ध करना चाहते थे, लेकिन आल्हा और अन्य लोगों ने उदल को किसी प्रकार शांत किया।
सैनिक सभी पांचों साधुओं को किले के भीतर राज महल में उपस्थित करते हैं, वहां पर सभी उनसे बहुत प्रभावित हुए। महाराज जंबे की पटरानी ने साधुओं से कुछ गाकर सुनाने को कहा। आल्हा-ऊदल और अन्य भाइयों ने राज्यसभा में सुंदर सुंदर भजन सुनाए, जो सभी को बहुत पसंद आए। महाराज जंबे ने साधुओं को दान दक्षिणा देना चाहा, लेकिन साधुओं ने लेने से मना कर दिया। साधु बोले, महाराज दक्षिणा का हम क्या करेंगे, हमने तो आप के किले की बहुत तारीफ सुनी है, इसलिए हम एक बार आपका किला देखना चाहते हैं, महाराज ने सहर्ष स्वीकृति दे दी।
मांडू की राजकुमारी विजयाकुमारी स्वयं साधुओं को किले का दर्शन कराने ले गई, अंत में वे सभी घूमते घूमते किले के एक गुप्त स्थान पर पहुंचे। यह एक रास्ता था, जो किले के भीतर से होकर बबरी वन में खुलता था। इस मार्ग का उपयोग संकट के समय किले से बाहर निकलने के लिए किया जाता था। राजकुमारी इस गुप्त मार्ग के विषय में साधुओं को बताना नहीं चाहती थी, इसलिए वह इस मार्ग के विषय में बिना जानकारी दिए आगे बढ़ गई।
तब आल्हा ने उनसे पूछा, राजकुमारी आपने इस मार्ग के बारे में तो बताया ही नहीं, यह मार्ग कहां खुलता है। यह सुनकर राजकुमारी को साधुओं की मंशा पर शक हो गया, और उसने अपनी तलवार निकाल ली, और साधुओं का वध करने के लिए दौड़ी। सभी साधुओं ने बिना हथियार के जैसे तैसे राजकुमारी का सामना किया, राजकुमारी ने साधुओं पर कई वार किए, पर साधु स्वयं को बचाने में सफल रहे। ऐसी हाथापाई में राजकुमारी बेहोश होकर गिर पडी, इसके बाद सभी साधु मौका देख कर किले से बाहर निकलने में सफल रहे।
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अब सभी भाइयों को किले की गुप्त जानकारियां मिल चुकी थी, वे सभी जंगल में सेना के साथ खड़े ब्रह्मजीत के पास पहुंचे, और उसे सारी योजना सुनाई। सभी भाई सेना को साथ लेकर मांडू के किले पर टूट पड़े। इधर मांडू की तरफ से भी राजकुमार राय करिंगा और राजकुमार सूरज सेना लेकर युद्ध के मैदान में आ डटे। दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध छिड़ गया। सैनिक सैनिकों से लड़ रहे थे, घुड़सवार घुड़सवारों से लड़ रहे थे, हाथी सवार हाथी सवारों से लड़ रहे थे, युद्ध के बीच में सभी भाइयों ने अपनी सेना को अलग-अलग टुकड़ियों में बांट कर, मांडू की सेना को कई ओर से घेर लिया।
सभी भाइयों ने युद्ध में अद्भुत युद्ध कौशल दिखाया, मांडू की सेना ने भी महोबा की सेना का भरपूर मुकाबला किया। युद्ध करते-करते आल्हा और राय करिंगा आमने-सामने आ गए। राय करिंगा आल्हा से बोला, मैंने ही तुम्हारे पिता और चाचा को कोल्हू में पीसकर, उनके सर बरगद के पेड़ से लटका दिए थे, अब तुम सब भाइयों की बारी है। मैं तुम सब के भी मस्तक काटकर उस बरगद के पेड़ की शोभा बढ़ाऊँगा। यह सुनकर आल्हा की आंखों में खून उतर आया, दोनों के बीच जबरदस्त युद्ध हुआ।
दोनों ने एक दूसरे पर घातक वार किए, लेकिन युद्ध कौशल में आल्हा, राय करिंगा से श्रेष्ठ साबित हुए, राय करिंगा के पांव उखड़ने लगे, इसीलिए वह आल्हा को छोड़कर उदल के पास युद्ध करने चला गया। उदल को तो इसी बात का इंतजार था, ऊदल ने राय करिंगा को युद्ध में गंभीर रूप से घायल कर दिया। यह देखकर उसके सैनिक उसे रण क्षेत्र से दूर ले गए, इसके बाद राय करिंगा के छोटे भाई सूरज ने मोर्चा संभाला। वह भी एक पराक्रमी योद्धा था, वह ऊदल पर टूट पड़ा, उदल ने भी उसको भरपूर जवाब दिया, दोनों में भयंकर युद्ध छिड़ गया।
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दोनों युद्ध कौशल में बराबर लग रहे थे, कई घंटों तक दोनों की तलवारे आपस में टकराती रही, कोई किसी से कम नहीं था, दोनों एक दूसरे पर घातक वार कर रहे थे, और सामने वाले के वार का प्रतिकार भी जानते थे। दोनों के बीच ऐसा जबरदस्त युद्ध हुआ, कि दोनों सेनाएं अपना युद्ध छोड़कर, इन दोनों का युद्ध देखने लगी। राजकुमार सूरज के ऐसे पराक्रम को देखकर, आल्हा ने भी उसके रण कौशल की तारीफ की। युद्ध करते करते दोनों योद्धा थककर चूर हो गए। शाम तक युद्ध अनिर्णीत ही रहा, ना तो उदल कम पड़े और ना ही सूरज। दोनों बराबर के योद्धा साबित हुए।
दूसरे दिन फिर से युद्ध शुरू हुआ, अगले दिन राय करिंगा फिर से अपनी सेना का नेतृत्व करने के लिए तैयार था। दोनों सेनाओं में फिर से घमासान युद्ध छिड़ गया, दोनों सेना एक दूसरे पर टूट पड़ी, राय करिंगा ने आल्हा से युद्ध किया, और सूरज ने उदल से युद्ध किया। इस बार उदल के हाथों सूरज ने वीरगति प्राप्त की, और उधर आल्हा के हाथों राय करिंगा भी मारा गया। दोनों राजकुमारों के धराशाई होते ही मांडू की सेना के पैर उखड़ गए, और सैनिक किले की तरफ दौड़े। इसके बाद महोबा की सेना ने मांडू के किले को चारों तरफ से घेर लिया।
किले के भीतर राजा जंभे, अपने राजकुमारों की मृत्यु का समाचार सुनकर घबरा गया। कोई रास्ता ना देख कर राजा जंभे किले के भीतर स्थित गुप्त मार्ग से सेना की एक टुकड़ी लेकर बाहर निकला। उस गुप्त मार्ग के दूसरे छोर पर ब्रह्मजीत अपनी सेना की टुकड़ी के साथ खड़ा था, वहां पर राजा जंभे और ब्रह्मजीत के बीच भयानक संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में ब्रह्मजीत घायल हो गए, समाचार मिलने पर उदल तुरंत वहां पहुंचे और उन्होंने राजा जंभे से युद्ध किया, इस युद्ध में राजा जंभे उदल के हाथों मारा गया।
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राजा जंबे की मृत्यु होते ही महोबा की सेना यह युद्ध जीत चुकी थी। चारों तरफ आल्हा-उदल की, मलखान सुलखान की, और ब्रह्मजीत की जय जयकार होने लगी। तब आल्हा और उदल ने राय करिंगा और राजा जम्भे का मस्तक ले जाकर अपनी माता के चरणों में प्रस्तुत किया, और उनसे कहा कि आज हमने अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध ले लिया है। इस प्रकार आल्हा-ऊदल ने अपनी माता देवल को दिया वचन पूरा किया।
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