श्री बांके बिहारी की एक भक्त की अदबुध कहानी Banke Bihari Ki Kahani - Hindi Kahaniyan हिंदी कहानियां 

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शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

श्री बांके बिहारी की एक भक्त की अदबुध कहानी Banke Bihari Ki Kahani

श्री बांके बिहारी की एक भक्त की अदबुध कहानी


एक समय की बात है, झांसी और शिवपुरी के मध्य में करैरा नामक एक गांव है। उस गांव से महुअर नाम की नदी गुजरती है, उस महुअर नदी के किनारे श्री बांके बिहारी जी का एक प्राचीन मंदिर है, जो आज भी वहाँ पर स्थित है।  उस मंदिर के ठीक बगल में एक जीर्ण शीर्ण मकान स्थित है। एक महात्मा जी उस बिहारी जी के मंदिर में पधारे, उन्होंने वहां के पुजारी से उस जीर्ण मकान के बारे में पूछा, कि इस मकान की क्या कहानी है। तब उन पुजारी जी ने महात्मा जी को कई वर्ष पहले की एक सत्य घटना सुनाई।


बात उस समय की है, जब उस मंदिर के महंत थे, श्री रज्जव दास जी महाराज, और जो यह मकान टूटा फूटा है, यहां पर एक दुकान हुआ करती थी। यहां पर एक गहोई वैश्य जाति की बूढ़ी महिला रहती थी, उसके परिवार में कोई नहीं था। वह अकेली ही यहां रहती थी। वैश्य जाति की होने के कारण उसकी आदत थी, कुछ ना कुछ व्यापार करने की, इसीलिए वह कचोरी और पकौड़ीयां बनाती थी और बेचती थी। 

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लोग उससे कहते थे, माई तुम इतनी बुढ़ी हो और अकेली रहती हो, तुम्हारे पास इतना बड़ा मकान है, दुकान है, और तुम रोज व्यापार भी करती हो, क्या करोगी इतने धन का। यह सब छोड़कर भगवान का नाम लिया करो। लेकिन वह बुढ़िया नहीं मानती, और इसी प्रकार रोज कचोरी पकोड़े बना बना कर बेचती थी। एक दिन उसे रात्रि में सपना आया, उसने सपने में देखा कि वह मर चुकी है, और लोग उसकी संपत्ति लूट-लूट कर ले जा रहे हैं। सवेरे जागने पर उसे लगा, की कहीं सच में ऐसा ही ना हो जाए, क्योंकि मेरा तो कोई है ही नहीं, मेरे बाद तो यह सब संपत्ति लोग ही लूट कर ले जाएंगे। 


लोग यह सब लूटें यह तो ठीक नहीं, ऐसा विचार करके वह बुढ़िया अपने गहोई वैश्य समाज के लोगों के पास गई। उन सबसे सलाह करके उसने अपनी सारी संपत्ति बिहारी जी के मंदिर के नाम कर दी। इसके बाद वह बुढ़िया अपनी दुकानदारी छोड़कर बिहारी जी के मंदिर में ही निवास करने लगी, और मंदिर से ही उसे दोनों समय का भोजन भी मिल जाया करता था। 


अब उस बुढ़िया ने अपना सारा जीवन भगवान श्री कृष्ण को समर्पित कर दिया। वह सारे दिन मंदिर में बैठकर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति किया करती थी। जो हाथ बेसन में सने रहते थे, उन हाथों से वह माला फेरती, जो आंखें ग्राहकों की प्रतीक्षा करती थी, वे आंखें अब भगवान को निहारती थी। उसकी पूरी जिंदगी बदल चुकी थी। गाँव के सभी लोग अब उसे भक्तिन कह कर पुकारते थे। उस मंदिर के महंत श्री रज्जव दास जी महाराज थे, जो एक मितव्ययी व्यक्ति थे। 


एक दिन वह भक्तिन रात को हमेशा की तरह दूध पी रही थी, महंत जी ने देखा कि भक्तिन दूध पीते पीते कुछ चबा रही है। महंत जी ने पूछा, माई यह तुम दूध में क्या चबा रही हो, भक्तिन बोली, महाराज आप दूध में मेवा ज्यादा डाल देते हो, उसी को चबा रही हूं। महंत जी ने सोचा, मैं और दूध में मेवा डालूँ, मैं दूध में चीनी डाल देता हूं वही बहुत है, महंत जी का माथा ठनका, दूसरे दिन उन्होंने देखा, दोपहर को भक्तिन को दाल परोसी गई, तो दाल में घी तैरता दिखाई दिया। 

महंत जी ने पूछा यह दाल में घी कहां से आया, भक्तिन बोली, महाराज आप ही तो दाल में घी डालकर लाते हो। महंत जी को लगा शायद बर्तन में पहले से ही घी गिर गया होगा। अब महंत जी रोज देखते, भक्तिन की रोटी और दाल में रोज घी दिखाई देता और उसके दूध में मेवे भी बढ़ते जा रहे थे। साथ ही महंत जी की रसोई में घी और मेवों से भरे पात्र खाली होते जा रहे थे। महंत जी को समझ नहीं आ रहा था, कि यह सारे पात्र कैसे खाली हो रहे हैं, क्योंकि उनके अलावा रसोई में कोई नहीं जाता था और रसोई की चाबी हमेशा महंत जी के पास ही रहती थी। 


एक दिन महंत जी भगवान की आरती कर रहे थे, उन्होंने देखा भगवान बिहारी जी के वस्त्र की बाहों पर घी लगा है। उन्होंने सोचा शायद आरती करते समय लग गया होगा, महंत जी ने उस वस्त्र को धोंकर बिहारी जी को दूसरी पोशाक पहना दी। लेकिन दूसरे दिन उन्होंने देखा भगवान के दोनों हाथ घी में सने हुए है। अब महंत जी को विश्वास हो गया, की यही बिहारी जी भक्तिन को दूध में मेवे और दाल रोटी में घी डाल कर देते हैं। 


महंत जी ने बिहारी जी से कहा "ग्वाल सिंघासन, पैं पुजकैं, भयो ठाकुर हूपैं, ठगोरी ना छुटी, काहू को काज बने बिगरे, बृजराज तेरी यह चोरी ना छुटी ". प्रभु आपकी यह चोरी की आदत अभी तक नहीं छूटी। प्रभु मैंने वो सब खाद्य सामग्री संतों की सेवा के लिए बचा रखी है, परंतु आप तो सब कुछ भक्तिन पर लुटा रहे हैं, यह ठीक नहीं है। कभी कोई संतो की जमात आ गयी, तो मैं उनकी कैसे सेवा करूँगा। भगवान चुपचाप सुनते रहे कुछ नहीं बोले, लेकिन भक्तिन के लिए उसी तरह घी और मेवे लुटाते रहे। 


महंत जी ने जो भी खाद्य सामग्री संतो की सेवा के लिए जमा करके रखी थी, वह सब धीरे-धीरे खाली होने लगी। जब भगवान ने महंत जी की बात नहीं सुनी, तो महंत जी को भगवान पर ही क्रोध आ गया, साथ ही उन्हें भक्तिन पर भी क्रोध आ रहा था। महंत जी ने सोचा, इस भक्तिन को मंदिर से निकाल देना चाहिए, महंत जी ने विचार किया, इसको निकाले कैसे, कोई लांछन हो कोई आरोप हो तब तो इसे निकाले। इस प्रकार महंत जी भक्तिन को मंदिर से निकालने का उपाय सोचने लगे। 


महंत जी ने विचार किया और एक दिन वह मंदिर के दरवाजे पर बैठ गए, और उस रास्ते से जितनी महिलाएं और पुरुष निकलते उनसे कहने लगे, भक्तिन ने तो एक आदमी रख लिया है। ऐसी बातें बहुत ही जल्दी फैलती है, गांव में यह बात फैल गई, कि भक्तिन ने एक आदमी रख लिया है। ऐसी बातें सुनकर गांव के लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगे। पूरे गांव में चर्चा हो गई, जब भक्तिन को इस बारे में पता चला तो उसे बहुत बुरा लगा। गांव के लोग उसे तरह-तरह की बातें सुनाने लगे। अपने ऊपर यह झूठा कलंक लगने से भक्तिन बहुत दुखी थी। 


उस दिन भक्तिन मंदिर नहीं गई, वह सीधे अपने गहोई वैश्य समाज के लोगों के पास गई, और उनसे कहा मंदिर के महंत जी मुझ पर झूठा इल्जाम लगा रहे हैं। मैंने जो अपनी संपत्ति बिहारी जी के नाम कर दी है, मुझे वह वापस नहीं चाहिए, परंतु मुझे इस झूठे कलंक से मुक्ति दिलाइए। मैं भीख मांग कर अपना गुजारा कर लूंगी, परंतु अब मैं वहां उस मंदिर में नहीं रहूंगी। भक्तिन की यह बात सुनकर गहोई वैश्य समाज के सभी लोग भक्तिन के साथ हो लिए और मंदिर की तरफ चल पड़े। 


मंदिर में महंत जी ने दूर से ही देखा, कि लोगों की बड़ी भारी भीड़ मंदिर की ओर चली आ रही है। महंत जी ने सोचा आज तो कोई उत्सव भी नहीं है, फिर यह सभी लोग इधर क्यों आ रहे हैं। जब उन्होंने ध्यान से देखा, इस भीड़ में वह भक्तिन भी आ रही थी, तो महंत जी समझ गए, कि यही भक्तिन इन सब को अपने साथ लेकर आ रही है, इसलिए वह उत्तर देने के लिए तैयार हो गए। 


जैसे ही सभी लोग मंदिर पहुंचे, किसी के कुछ भी कहने से पहले महंत जी बोले। "भोजन में नित घर्त स्व कर सौं लेत, भर भर देत या भक्तिन की थारी जूँ, मंदिर में मेवा के सारे पात्र रीते पड़े, कैसे रहेगी बात रीते पर हमारी जू".  लोग समझे नहीं, महंत जी बोले मंदिर के सारे घी और मेवा के पात्र धीरे-धीरे खाली होते जा रहे हैं, यदि कोई साधुओं की जमात आ गई, तो हम समय पर उन्हें क्या खिलाएंगे। सभी लोग बोले अगर ऐसा है, तो यह कहिए कि भक्तिन चोरी करती है, लेकिन आपने तो इस पर दूसरा कलंक लगा दिया। 


महंत जी बोले यह चोर नहीं है, यह सच्ची और ईमानदार है। लोग बोले तो फिर आपने इस पर यह कलंक क्यों लगाया। महंत जी बोले "या के भक्ति भाव पर हम हुँ बलिहारी जूँ, कैसे या प्रतीत कराए हम, पति या भक्तिन ने बनाए हैं बिहारी जूँ". इसकी भक्ति ने बिहारी जी को अपने बस में कर लिया है, वही इसको मंदिर की रसोई से चुरा चुरा कर मेवे और घी खिलाते हैं, बिहारी जी ने इसे गोपी रूप में स्वीकार कर लिया है, और इसने बिहारी जी को पति रूप में मान लिया है। इसलिए हमने कुछ भी गलत नहीं कहा, यह कहकर महंत जी ने सभी लोगों को मंदिर में घटित हुई सारी बातें बताई। 


सब लोग क्या सोच कर आए थे, और मंदिर आकर उन्हें कुछ और ही पता चला। यह बातें सुनकर सब लोगों की आंखों में आंसू आ गए। सभी लोगों ने कहा, महंत जी, अब आप इस भक्तिन की चिंता ना करें, हमारे इतने परिवार हैं, यह जिस भी परिवार में पहुंच जाएगी, वहां के लोग इसे भोजन कराकर स्वयं को धन्य मानेंगे। जिसका भगवान से नाता हो, उसकी सेवा करना तो हम सभी का सौभाग्य होगा। 


भक्तिन ने कहा, अब मैं कहीं नहीं जाऊंगी, यही इसी मंदिर में रहूंगी। दोपहर को महंत जी भोजन लेकर आए, लेकिन भक्तिन ने भोजन खाने से मना कर दिया, कहा मुझे भूख नहीं है। महंत जी बोले, हाँ अब तुम हमारे यहां भोजन क्यों करोगी, कल से तो तुम्हारा बड़े-बड़े सेठों के यहां निमंत्रण है, यह कहकर महंत जी चले गए। रात को महंत जी दूध लेकर आए, भक्तिन ने नहीं पिया। वह सारी रात श्री बिहारी जी के सामने बैठी रही। महंत जी को भी नींद नहीं आ रही थी, वे भी भक्तिन को अपने कमरे में से बैठे-बैठे देख रहे थे।


सुबह के तीन बजे, जब सब लोग सो रहे थे, भक्तिन ने भगवान की देहरी पर सिर रखकर आंसू बहाए और उनसे कहा। "नाथ को नाम कियो बदनाम, वैरागि सौं ना विवाद बढाऊं, और आपके हाथ से पायो प्रसाद, कहां अब किसी और के हाथ से पाउं" . अर्थात आपका नाम बदनाम किया, इसलिए मैं और अधिक बात बढ़ाना नहीं चाहती,  और जब आपके हाथ से प्रसाद पाया, तो अब क्या किसी दूसरे के हाथ से प्रसाद पाऊँ। ऐसा कहकर जैसे ही भक्तिन ने अपना सिर मंदिर की देहरी पर रखा, अचानक एक बहुत तेज प्रकाश हुआ, और गड़गड़ाहट के साथ मंदिर के सभी दरवाजे खुल गए, और मंदिर की सभी घंटियां अपने आप बज उठी।


महंत जी और सभी लोग जागकर अपने-अपने कमरों से बाहर आए। सभी ने देखा, की भक्तिन के शरीर से एक प्रकाश पुंज निकला और बिहारी जी के श्री विग्रह में जाकर समा गया। भक्तिन के प्राण श्री बिहारी जी में विलीन हो चुके थे। पूरे करैरा गांव में इस बात का हल्ला मच गया। अगले दिन करैरा गांव में ही महुअर नदी के किनारे भक्तिन का अंतिम संस्कार किया गया, और वही पर उसकी समाधि भी बनाई गई। 


महंत रज्जब दास जी, जब तक उस मंदिर में रहे, उनका नियम था, भगवान की आरती करने के बाद वह छत पर चले जाते, और छत से उस समाधि की भी आरती उतारते। आज भी वह करैरा गांव है, वहां आज भी बिहारी जी का वह प्राचीन मंदिर है,  मंदिर के बगल में वह खंडहर मकान है, और आज भी उस भक्तिन की समाधि वहां उस  महुअर नदी के किनारे स्थित है।

 

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