भगवान श्री विट्ठल की अदभुद कहानी Hindi Story in Hindi
महाराष्ट्र के पंढरपुर मैं एक ब्राह्मण थे, उनका नाम भक्त पुंडरीक था। वे शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान थे, वे अपने वृद्ध माता-पिता की अकेली संतान थे। पुंडरीक जी अपनी पत्नी से बहुत प्रेम किया करते थे, और पत्नी जैसा कहती थी, वैसा ही किया करते थे। उनकी पत्नी एक स्वार्थी स्वभाव की महिला थी।वह अपने सास-ससुर के साथ ना तो उचित व्यवहार करती, और ना ही उनकी उचित देखभाल किया करती थी। पुण्डरीक जी यह सब जानते थे, परन्तु वे अपनी पत्नी को नाराज नहीं करना चाहते थे, इसलिए उसे कुछ नहीं कहते थे।
एक बार पुंडरीक जी के माता-पिता ने गंगा स्नान की इच्छा व्यक्त की। वे बोले बेटा हम वृद्ध हो गए हैं, परंतु हमने अभी तक गंगा जी का दर्शन नहीं किया, इसलिए हमें जीवन में एक बार तो गंगा स्नान कराने ले चलो। पुंडरीक जी ने पूछा गंगा स्नान के लिए कहां जाना चाहते है। माता-पिता बोले हमें काशी ले चलो, काशी में गंगा स्नान भी हो जाएगा, और भगवान विश्वनाथ के दर्शन भी हो जाएंगे। वापसी में काशी से प्रयागराज आ जाएंगे, वहां पर त्रिवेणी संगम में स्नान करके अपने घर लौट आएंगे। Hindi Story in Hindi
पुंडरीक जी ने सोचा, माता-पिता वृद्ध हैं, अब यह कह रहे हैं, तो इनकी बात मान लेते हैं। पुंडरीक जी ने हामी भर दी। जब पुंडरीक जी की पत्नी को पता चला, कि वे माता-पिता के साथ गंगा स्नान के लिए जा रहे हैं, तो वह बहुत नाराज हो गई। वह पुंडरीक जी से बोली, आपने माता-पिता को गंगा स्नान के लिए ले जाने से पहले मुझसे क्यों नहीं पूछा, मैं भी आपके साथ चलूंगी।
पुंडरीक जी बोले, चलो, यह तो बहुत अच्छी बात है, हमें भी तुम्हारा वियोग नहीं सताएगा, और मार्ग में बड़े आनंद से चलेंगे। पत्नी बोली, मैं बहुत सुकुमारी हूं, इतनी लंबी यात्रा कैसे करूंगी, मेरे पैरों में छाले पड़ जाएंगे। पुंडरीक जी बोले, फिर तुम कैसे चलोगी। पत्नी बोली, मैं आपके कंधे पर चढ़कर चलूंगी। पुंडरीक जी बोले, कोई बात नहीं, मार्ग में थोड़ा सा चल लेना, जब थक जाओ तो हम तुम्हें अपने कंधे पर बिठा लेंगे।
अब उन सभी ने मिलकर यात्रा शुरू की, पुंडरीक जी के बूढ़े माता-पिता पैदल चल रहे थे, और उनकी युवा पत्नी उनके कंधे पर बैठ कर जा रही थी। पुंडरीक जी ने अपनी पीठ पर सामान भी लाद रखा था। मार्ग में कुछ दूर चलने पर पुंडरीक जी के माता पिता बोले, बेटा हमें भी सहारा देकर चलो, नहीं तो हम गिर जाएंगे। पुंडरीक जी बोले, कि अब इतना तो संभव नहीं कि हम आप सभी को कंधे पर बिठा ले।
इसीलिए पुंडरीक जी ने अपने माता और पिता दोनों को एक कपड़े से बांधकर, उस कपड़े को अपने कंधों के बीच में टिकाकर, दोनों हाथों से उस कपड़े को पकड़ लिया, और पूरे मार्ग में माता-पिता को सहारा देते हुए चले। भक्त पुंडरीक जी की ऐसी छवि, आज भी पंढरपुर के मंदिर में लगी हुई है, जिसमें उनके कंधे पर उनकी पत्नी बैठी हुई है, उनकी पीठ पर सामान लदा है, और वे दोनों हाथों से अपने माता-पिता को कपड़े से बांधकर सहारा देते हुए चले जा रहे हैं। इस प्रकार कठिनाइयों से यात्रा करते हुए पुंडरीक जी अपने माता पिता और पत्नी को लेकर काशी पहुंचे।
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काशी पहुंचकर सभी ने गंगा स्नान किया, और काशी विश्वनाथ जी के दर्शन किए, संध्या के समय पुंडरीक जी और उनका परिवार एक विद्वान ब्राह्मण के घर में रुके। सभी लोग थके हुए थे, उन सभी को शीघ्र ही नींद आ गई। आधी रात के बाद पुंडरीक जी की नींद खुली, और उन्होंने देखा के कुछ दिव्य पुरुष और कुछ दिव्य देवियां विद्वान ब्राह्मण के घर में सेवा कर रहे थे। कोई झाड़ू लगा रहा था, कोई पानी भर रहे थे, सभी छोटा मोटा कुछ काम कर रहे थे। पुंडरीक जी उनमें से एक दिव्य पुरुष के पास गए, वे देखने में एक बहुत ही तेजस्वी राजा के समान दिखाई दे रहे थे।
पुंडरीक जी ने उन्हें नमस्कार किया और उनसे पूछा श्रीमान आपका परिचय क्या है, आपके जैसा दिव्य पुरुष मैंने पहले कभी नहीं देखा। वे दिव्य पुरुष बोले, पंडित जी, मैं तीर्थराज प्रयाग हूं, यह सुनकर पुंडरीक जी चौक गए। उन्होंने पूछा और आपके साथ यह अन्य पुरुष और देवियां कौन है। वे दिव्य पुरुष बोले, यह सभी अलग-अलग तीर्थ है, और यह देवियां गंगा, यमुना, नर्मदा, सरस्वती, कावेरी, आदि पवित्र नदियां है। पुंडरीक जी ने पूछा, आप सभी देवी देवता गण इन ब्राह्मण के घर में सेवा क्यों कर रहे हैं।
तीर्थराज प्रयाग ने बताया, यह जो विद्वान ब्राह्मण है, यह अपने माता पिता की भगवत भाव से सेवा करते हैं, यह अपने माता पिता को साक्षात श्री लक्ष्मी नारायण का स्वरूप मानते हैं, और उसी भाव से उनकी सेवा करते हैं। इसलिए इनकी इस सेवा का पुण्य प्रताप इतना है, की इनके घर में थोड़ी सी सेवा करके हमारे पाप भी नष्ट हो जाते हैं. इसलिए हम यहां पर सेवा करके निष्पाप होने आते हैं। सभी लोग निष्पाप होने के लिए हम तीर्थों और नदियों में स्नान करने आते हैं, और अपने पाप हमारे पास छोड़ जाते हैं, इसलिए उन पापों से मुक्त होने के लिए हम इन ब्राह्मण देवता के घर में सेवा करने आते हैं।
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तीर्थराज प्रयाग की बात सुनकर पुंडरीक जी को सीख मिल गई, और उन्होंने भी अपने माता पिता की इसी प्रकार सेवा करने का प्रण किया। सवेरे जब सभी लोग उठ गए, पुंडरीक जी ने अपने माता पिता के चरण स्पर्श करके उन्हें प्रणाम किया, और उनसे कहा माताजी-पिताजी मुझे क्षमा कर दीजिए, एक पुत्र का धर्म होता है, कि अपने माता-पिता की सेवा करे, और उन्हें सुख पूर्वक तीर्थ यात्रा कराये। लेकिन मैं आपको पूरे रास्ते कपड़े से बांधकर घसीट कर लेकर आया, मुझे क्षमा कर दीजिए, अब मैं आपको बिल्कुल भी कष्ट नहीं होने दूंगा।
अब वापसी कि यात्रा की जानी थी, उनकी पत्नी पुंडरीक जी के कंधे पर बैठकर चलने के लिए तैयार थी। पुंडरीक जी शरीर से हष्ट पुष्ट और बलवान थे, इसलिए उन्होंने अपने एक कंधे पर अपने पिताजी को बैठाया और दूसरे कंधे पर अपनी माताजी को बैठाया। यह देखकर उनकी पत्नी नाराज हो गई, और बोली, यह क्या कर रहे हो, आपके कंधे पर बैठकर तो मैं चलूंगी, आप अपने माता पिता को क्यों बैठा रहे हैं। पुंडरीक जी बोले, अब में अपने माता-पिता को कोई कष्ट नहीं होने दूंगा, इसलिए मैं उन्हें कंधे पर बिठा कर ले जा रहा हूं, और अब तुम्हें पूरे मार्ग मैं पैदल ही चलना है।
पत्नी बोली, मैं इतनी दूर पैदल नहीं चल सकती, अगर आप मुझे कंधे पर बैठाकर नहीं ले जाएंगे, तो मैं यहीं रह जाऊंगी। यह सुनकर पुंडरीक जी कठोर स्वर में बोले, तुम चाहो तो यहीं रह सकती हो, लेकिन मैं तो अपने माता पिता को ही कंधे पर बैठा कर ले जाऊंगा। यह सुनकर पत्नी समझ गई, कि अब पुंडरीक जी ने अपने माता-पिता की सेवा करने का निश्चय कर लिया है, इसलिए अब वह उसकी एक नहीं सुनने वाले, इसलिए पत्नी उनके साथ पैदल चलने को तैयार हो गई।
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इसके बाद पुंडरीक जी ने अपनी पत्नी को कड़े शब्दों में यह भी कह दिया, की आज से मैंने अपने माता-पिता की सेवा करने का जो निश्चय किया है, यदि तुम उसमें मेरी सहयोगी बन सको, तो ही हमारे साथ चलो, अन्यथा हमें तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं। तुम यहीं रह सकती हो, और हम अकेले ही हमारे माता-पिता की सेवा कर लेंगे, क्योंकि आज से हमने अपना बचा हुआ जीवन, अपने माता-पिता की सेवा में समर्पित करने का निश्चय कर लिया है।
यह सुनकर उनकी पत्नी की अकल ठिकाने आ गई, और उसने पुंडरीक जी का हर काम में साथ देने का वचन दिया, इस प्रकार वे सभी लोग पंढरपुर वापस आ गए। घर आकर पुण्डरीक जी परम प्रेम से अपने माता-पिता को श्री लक्ष्मी नारायण का साक्षात् स्वरुप मानकर उनकी सेवा करने लगे। उनकी पत्नी भी इस काम में उनका साथ देने लगी। बहुत समय तक माता-पिता की सेवा करते करते पुंडरीक जी की पित्र भक्ति सिद्ध होने लगी, उनकी भक्ति पर भगवान श्री नारायण रीझ गए।
एक दिन भगवान श्री नारायण की, भक्त पुंडरीक जी से मिलने की इच्छा हुई, वे वैकुंठ से पुंडरीक जी से मिलने जाने लगे, तभी लक्ष्मी जी बोली, प्रभु आप कहां जा रहे हैं। श्री नारायण बोले, देखो लक्ष्मी जी, बुरा मत मानना, कोई कहीं जा रहा हो तो पीछे से उसे टोका नहीं करते। लक्ष्मी जी बोली, प्रभु, अब तो मैंने पूछ लिया है, तो बता भी दीजिए आप कहां जा रहे हैं। तब श्री नारायण बोले, कि मैं एक भक्त का दर्शन करने जा रहा हूं। यह सुनकर लक्ष्मी जी चौंक गई, और बोली, सभी ऋषि गण, इंद्र आदि देवता, ब्रह्मा और भगवान शिव भी आप का दर्शन करना चाहते हैं, लेकिन यह ऐसा कौन सा भक्त है, जिसके दर्शन आप करना चाहते हैं।
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श्री नारायण बोले, हमारा एक विचित्र भक्त है, वह अपने माता-पिता को, हमारा ही स्वरूप मानकर, बड़े भाव से उनकी सेवा करता है, इसलिए हमारी आंखें उसके दर्शन के लिए तरस रही है। लक्ष्मी जी बोली, अगर ऐसी बात है, तो मैं भी आपके उस भक्त का दर्शन करने आपके साथ चलूंगी। श्री नारायण बोले, देवी, हमारे भक्त बहुत विचित्र होते हैं, उनको पहचानना आसान काम नहीं, उनका व्यवहार भी बहुत विचित्र होता है, अगर आपको वहां उचित सम्मान नहीं मिला तो आप नाराज हो जाएंगी। लक्ष्मी जी बोली, प्रभु, आप भी कैसी बात करते हैं, जिनका दर्शन करने आप जा रहे हैं, उनसे मैं सम्मान लेने जाऊंगी, मैं तो उनका दर्शन करने चल रही हूं।
श्री लक्ष्मी जी और श्री नारायण दोनों पंढरपुर में पुंडरीक जी के घर पधारे। उस समय पुंडरीक जी अपने माता पिता को भोजन कराकर शयन करवा चुके थे, और उन दोनों के, प्रेम से पैर दबा रहे थे। पुंडरीक जी ने श्री लक्ष्मी नारायण जी के साक्षात् दर्शन प्राप्त किये, परंतु वे उनका स्वागत करने के लिए नहीं उठे, वे अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही अपने माता पिता के चरण दबाते रहे।
यह देखकर लक्ष्मी जी थोड़ी नाराज हो गई। उन्होंने सोचा, यह कैसा भक्त है, साक्षात भगवान श्री नारायण इसे दर्शन देने आए हैं, लेकिन यह अपने स्थान से उठा भी नहीं, इसने स्वागत तो छोड़िए, नमस्कार भी नहीं किया। अपने घर आए साधारण अतिथि को भी लोग बड़े सम्मान से बिठाते हैं, परन्तु इसके यहां स्वयं श्री नारायण पधारे है, और इसने प्रभु को आसन तक नहीं दिया।
श्री नारायण, लक्ष्मी जी को देख रहे थे, कि उन्हें क्रोध आ रहा है। उन्होंने आंखों के इशारे से पुंडरीक जी से बात की, और उन्हें समझाया, कि लक्ष्मी जी को गुस्सा आ रहा है, क्योकि वह हमारा सम्मान चाहती हैं। पुंडरीक जी समझ गए, और उन्होंने अपने पास पड़ी एक ईट श्री नारायण की ओर फेंक दी, और कहा आप इस आसन के ऊपर खड़े हो जाइए। श्री नारायण उस ईट पर खड़े हो गए।
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कुछ देर बाद जब पुंडरीक जी के माता-पिता को नींद आ गई, तब वे उठे और उन्होंने भगवान श्री लक्ष्मी नारायण को साष्टांग प्रणाम किया। तब भगवान बोले, भक्त जी, हमारा उचित सम्मान ना होने के कारण, देवी लक्ष्मी आपसे कुछ नाराज हैं, इनके मन में कुछ दुविधा है, इसलिए आप इनकी शंका का निवारण कीजिए, कि आपने हमारा सम्मान क्यों नहीं किया। तब पुंडरीक जी बोले, प्रभु, आप बुरा ना मानिएगा, हमने तो आपको बुलाया नहीं, तो आप यह बताइए, कि आप यहां पर क्यों आए हैं। तब भगवान श्री नारायण बोले, तुम्हारी जो अपने माता-पिता के प्रति भक्ति है, उस भक्ति से रीझ कर हम तुम्हारे पास आए हैं।
तब पुंडरीक जी ने हाथ जोड़कर कहा, प्रभु, जिन माता पिता की सेवा के फल स्वरुप, आप श्री लक्ष्मी नारायण स्वयं चलकर मेरे घर पधारे हैं, यदि मैं उन माता पिता की सेवा छोड़कर आपका सम्मान करने आता, तो आप उसी समय अंतर्ध्यान हो जाते। यह सुनकर देवी लक्ष्मी और भगवान श्री नारायण दोनों मुस्कुरा दिए, और बोले, भक्तराज हम तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न है, इसलिए हमसे कुछ मांग लो।
पुंडरीक जी बोले, आप माता पिता की सेवा करने वालों पर कितने प्रसन्न रहते हैं, यह बताने के लिए जिस प्रकार आपने मुझे दर्शन दिए हैं, उसी प्रकार इसी स्वरूप में आप सभी प्राणियों को दर्शन दीजिए, और जब मेरे माता पिता सो कर जग जाएँ, तो उन्हें भी आप अपने इस मंगलमय स्वरूप का दर्शन देने की कृपा करें।
श्री नारायण बोले, तथास्तु, ऐसा कहकर भगवान श्री नारायण उसी समय मूर्ति रूप में बदल गए, जिसमें भगवान उसी ईट पर खड़े हुए हैं, और अपने दोनों हाथों को कमर पर टिकाए अपने भक्त की प्रतीक्षा कर रहे हैं। आज भगवान श्री नारायण के उस स्वरूप को भगवान विट्ठल या पंढरीनाथ के रूप में पूजा जाता है, और उसी स्वरूप में भगवान श्री नारायण सभी को दर्शन देते हैं।
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