माँ गंगा के कंगन और संत रैदासजी की कहानी - Hindi Kahaniyan
काशी में एक ब्राह्मण नित्य प्रति राजा की तरफ से गंगाजी को पुष्प अर्पित करने जाया करता था तथा मार्ग में संत रैदास जी से भी मिलता था। एक दिन रैदासजी ने उस ब्राह्मण को दो पैसे देकर कहा, की महाराज आप प्रतिदिन राजा की तरफ से गंगाजी को पुष्प अर्पित करने जाते हैं, तो आज मेरी तरफ से ये दो पैसे भी गंगाजी को अर्पित कर देना और वे जो कुछ कहें, सो मुझे आकर बता देना। ब्राह्मण उनसे दो पैसे लेकर चला गया। रोज की तरह ब्राह्मण ने पहले राजा की ओर से गंगाजी को पुष्प अर्पित किये और फिर रैदासजी के दो पैसे भी गंगाजी को अर्पित किये और कहा लो गंगा मैया यह दो पैसे रैदासजी ने भेजे है।
पैसे चढ़ाते ही ब्राह्मण ने देखा की गंगाजी में से दो दिव्य हाथ प्रकट हुए और दोनों पैसे लेकर अद्रश्य हो गए। यह द्रश्य देखकर ब्रह्मण आश्चर्यचकित रहा गया। कुछ ही क्षणों में वह हाथ फिर से प्रकट हुए और अबकी बार उन हाथों में एक सोने का बहुमूल्य कंगन था। जल में से आवाज आयी की यह कंगन जाकर रैदासजी को दे देना।
ब्राह्मण कंगन लेकर रैदासजी के घर की ओर जाने लगा। मार्ग में उसने सोचा की रैदासजी ने तो यह कंगन देखा नहीं है, तो फिर उन्हें यह क्यों दिया जाये। ऐसा विचार करके वह अपने घर की तरफ जाने लगा और रास्ते में उसने वह कंगन एक सुनार को बेच दिया। दूसरे दिन जब वह पुनः रैदासजी से मिला तब उनसे कहा की पैसे तो मैंने अर्पित कर दिए थे, परन्तु गंगाजी ने कुछ नहीं कहा। यह बात सुनकर रैदास जी चुप हो गए।
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अब उस कंगन को सुनार से किसी सेठ ने खरीद लिया। उस सेठ की पत्नी कंगन को पहन कर रानी से मिलने गयी। रानी को वह कंगन बहुत पसंद आया, तो सेठानी ने वह कंगन रानी को भेंट कर दिया। फिर रानी ने वह कंगन राजा को दिखाया, और उसी के जैसा एक और कंगन बनवा देने का आग्रह किया। राजा ने अपने राज्य के सभी प्रमुख सुनारों को बुलाकर वैसा ही एक और कंगन बनाने की आज्ञा दी। तब सुनारों ने कहा महाराज ऐसा लगता है, की इस कंगन पर तो ईश्वर ने स्वयं कारीगरी की है, इसके जैसा कंगन बनाना हमारे सामर्थ्य के बाहर है।
अब राजा ने खोज करवायी की यह कंगन कहाँ से आया, खोज करने पर उस सुनार को बुलाया गया और पूछा की तुम्हें यह कंगन कहाँ से मिला, तब सुनार ने उसी ब्राह्मण का नाम बता दिया। अब उस ब्राह्मण को बुलाकर पूछा गया की तुम्हे यह कंगन कहाँ से मिला। यह सुनकर ब्राह्मण बुरी तरह घबरा गया, तब राजा ने ब्राह्मण से पूछा क्या तुमने यह कंगन कहीं से चुराया है, सच-सच बताओ नहीं तो तुम्हें कठोर दंड दिया जायेगा। तब ब्राह्मण ने डरते-डरते रैदासजी और गंगा मैया की पूरी घटना सुना दी। फिर राजा उस ब्राह्मण को लेकर रैदास जी के पास पहुंचे और उन्हें पूरी घटना के बारे में बताकर प्रार्थना करि, की कृपा करके ऐसा ही एक और कंगन गंगाजी से दिलवा दीजिये।
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तब रैदासजी ने कहा, ब्राह्मण देवता को ऐसा नहीं करना चाहिए था, यह कहकर चमड़ा भिगोने वाले अपने कठौते की तरफ देखकर बोले "मन चंगा तो कठौती में गंगा" माता वैसा ही एक और कंगन दीजिये। ऐसा कहते ही सबके सामने उस कठौते से वैसा ही कंगन लिए एक दिव्य हाथ प्रकट हुआ और रैदासजी को वह कंगन दे दिया। रैदासजी की भक्ति का ऐसा चमत्कार देखकर, सब उनकी प्रशंसा करने लगे और राजा रैदास जी को प्रणाम करके उस कंगन को लेकर चला गया।
रैदासजी की भक्ति परीक्षा की कहानी
इस घटना के बाद समाज में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा कम हो गयी, इसलिए ब्राह्मण रैदासजी से ईर्ष्या करने लगे और उन्हें निचा दिखाने का उपाय ढूंढ़ने लगे। तब ब्राह्मणों ने काशी नरेश से जाकर कहा, की हे राजन रैदासजी ने झूठे चमत्कार दिखाकर सबको भृमित कर दिया है, यदि वे सच्चे भक्त है, तो उनकी भक्ति की परीक्षा की जानी चाहिए। तब राजा ने निर्णय किया की ब्राह्मण और रैदासजी बारी बारी से प्रभु का आवाहन करेंगे, जिसके पुकारने पर मंदिर में विराजमान प्रतिमा स्वयं चलकर जिसकी गोद में आ जाएगी वही सच्चा भक्त होगा।
इसके बाद एक दिन निश्चित किया गया, इस दिन नगर के सभी लोग यह भक्ति परीक्षा देखने आये थे। सबसे पहले ब्रह्मण दिन के तीन प्रहर तक विधि पूर्वक वेद मंत्रों का जाप करते रहे, परन्तु कुछ परिणाम नहीं निकला। इसके बाद रैदास जी की बारी आयी। रैदासजी ने विनम्रतापूर्वक भगवान से प्रार्थना की और कहा, हे भगवान इस दास पर अनुग्रह कीजिये। ऐसा कहकर उन्होंने प्रेमपूर्वक एक भजन गया।
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जैसे ही रैदासजी का भजन पूरा हुआ, भगवान की प्रतिमा सबके सामने अपने स्थान से उठकर रैदासजी की गोद में जा बैठी, इस प्रकार भगवान ने न केवल सबके सामने अपने भक्त की लाज रख ली, बल्कि भगवान ने अपने भक्त की प्रतिष्ठा को हजारों गुणा बढ़ा दिया। इस घटना के बाद नगर के सभी लोग और काशी नरेश रैदासजी की भक्ति के वशीभूत हो गए। इस घटना के बाद ब्राह्मणों को भी रैदासजी पर पूर्ण विश्वास हो गया, कालांतर में रैदासजी ने अपनी देह को त्यागकर मोक्ष प्राप्त किया और सदा के लिए आवागमन से मुक्त हो गए।
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